न तस्य मायया च न रिपुरीशीत मर्त्यः ।

यो अग्नये ददाश हव्यदातये ॥ (सामवेद मंत्र १०४)

जो मनुष्य देवों को हव्य पदार्थ देने के लिए, अग्नि के लिए आहुति सहित दान करता है, उसका शत्रु माया द्वारा भी शासन नहीं कर सकता।

इस सामवेद मंत्र 104 में ईश्वर ने माया से छूटने का सरल परंतु नित्य आचरण में लाने वाला उपाय बताया है कि जो मनुष्य यज्ञ करते हैं और नित्य अग्नि में आहुति डालते हैं तथा दान करते हैं (सुपात्र को ही दान दिया जाता है), उन मनुष्यों का शत्रु माया आदि द्वारा भी उस साधक पर हावी नहीं हो सकता अर्थात् यज्ञ करने वाले प्राणियों का शत्रु कुछ नहीं बिगाड़ सकते। परंतु आज वेद विद्या ना सुनने के कारण मनुष्य यज्ञ के रहस्य को नहीं जान पाता और वेद विरोधी मनगढ़ंत बातों को सुनकर जीवन बर्बाद कर देता है।

आश्चर्य की बात यह है कि जो श्री राम, श्री कृष्ण की भक्ति करते हैं उन विभूतियों के विषय में रामायण ने कहा – “कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे” अर्थात् श्री राम ने अपने जीवन में करोड़ों यज्ञ किए एवं राजसूयज्ञ युधिष्ठिर कीन्हों, ताँ में झूठ उठाई” अर्थात् युधिष्ठिर महाराज ने यज्ञ किया था तब श्री कृष्ण महाराज ने यज्ञ में जूठन उठाने की सेवा की थी।