स्वामी राम स्वरूप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल) (www.vedmandir.com)

ओ३म् अरं दासो न मीळ्हुषे कराण्यहं देवाय भूर्णयेऽनागाः। 

अचेतयदचितो देवो अर्यो गृत्सं राये कवितरो जुनाति ॥ (ऋग्वेद ७/८६/७)

(अहं) मैं (अनागाः) निष्पाप होकर (देवाय) परमात्मदेव के लिए (दासः न) दास की तरह (अरं कराणि) अपनी कामनाओं के लिए प्रार्थना करता हूँ (मीळ्हुषे) वह कर्मों का फलदाता (अचितः अचेतयत्) अज्ञानियों को मार्ग बतलाने वाला अर्थात् जिनमें चेतना नहीं है उनको चेतना देने वाला (अर्यः) सबका स्वामी (देवाः) सब दिव्य-गुण स्वरूप (कवितरः) सर्वज्ञ परमात्मा (गृत्सं) यज्ञ  करने वालों को (राये जुनाति) ऐश्वर्य्य की ओर प्रेरित करे। पहले मंत्र में ईश्वर के गुण  कहे कि  जो परमात्मा सृष्टि को रचता है और जो जीवों को कर्मानुसार सुख-दु:ख  देता है उस परमात्मा को धीर पुरुष ही ज्ञान-विज्ञान आदि द्वारा जानता है।

दूसरे मंत्र का भाव है कि हे परमेश्वर आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें, मैं आपको पा लूँ। तीसरे मंत्र में कहा – हे परमात्मा! मैं आपसे वह पाप पूछता हूँ जिसके कारण दर्शन से दूर हूँ, ऐसी कृपा करो कि मैं उन पापों से छूट जाऊँ। चौथे मंत्र में प्रार्थना है – हे परमात्मा! मैंने कौन से बड़े-बड़े पाप किए हैं जिनके कारण मैं आपको प्राप्त नहीं कर सकता। पांचवें-छठे मंत्र में पापों का ही वर्णन है। भाव यह है कि यदि साधक जब तक अपने पापों को स्वीकार नहीं करता, नहीं जानता तब-तक उसमें सुधार नहीं होगा। 

इस सातवें  में मंत्र में यह भाव दर्शाया है कि साधक जगह-जगह ईश्वर को पाने के लिए भटकता हुआ इस परिणाम पर पहुँचा कि  निष्पाप साधक को ही ईश्वर स्वीकार करता है। तो उस साधक ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर जाकर भिन्न-भिन्न ज्ञान प्राप्त किया पुनः किसी अच्छे वैदिक गुरु की शरण में जाकर निष्पाप होकर परमेश्वर से प्रार्थना करी कि हे परमेश्वर! मैं नित्य यज्ञ करता हूँ जिससे कृपा करके आप मेरा कल्याण कीजिए मुझे ऐश्वर्य संपन्न कीजिए।  पुनः भाव यही है कि जब जीव वैदिक गुरु की शरण में जाकर वेदों की शिक्षा ग्रहण करता है और जिसमें संसार का सर्वश्रेष्ठ कर्म करने की आज्ञा दी है और वह साधक यज्ञ करना प्रारम्भ कर देता है तब वेदों में कही यह अमूल्य प्रार्थनाएँ भी उसका साथ देती हैं।