महर्षि वाल्मीकि जी के संबंध में लोगों में एक कथा प्रचलित है कि वे रामायण की रचना करने से पहले डाकू थे। उनके सम्बन्ध में रामायण को ही प्रमाण माना जा सकता है क्योंकि जब प्रमाण की बात आती है तो दो ही प्रमाण माने जाते हैं – वेद और आप्त ऋषि। वेद ईश्वर का ज्ञान है और ऋषि कभी झूठ नहीं बोलते। सीता जी की पवित्रता की साक्षी देते हुए उन्होंने कहा था कि-

प्रचेत्सोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन।

हे राम ! मैं प्रचेतस मुनि का दसवां पुत्र हूँ।

मनसा कर्मणा वाचा भूतपूर्वं न किल्बिषम्।

मैंने मन, वचन और कर्म से कभी भी पाप नहीं किया है।

अतः जिन वाल्मीकि जी ने कभी मन से किसी का बुरा सोच कर, मुँह से कभी किसी को बुरा बोल कर और कर्म से कभी कोई बुरा काम आदि नहीं किया वो वाल्मीकि जी कैसे डाकू हो सकते हैं। महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण अनुष्टुप छंद में कही थी। कोई डाकू कैसे अनुष्टुप छंद में कोई कविता आदि कह सकता है।

हमारी संस्कृति को नष्ट करने के लिए और वेदों शास्त्रों का सत्य कभी सामने ना आए तो ऐसी कहानियाँ फैलानी शुरू कर दी कि वाल्मीकि जी डाकू थे, व वेद, संस्कृत कठिन हैं, आदि। इस सिद्धांत को सभी ने सुना है कि यदि तुम किसी राष्ट्र को नष्ट करना चाहते हो तो उसकी संस्कृति को समाप्त कर दो, राष्ट्र अपने आप नष्ट हो जाएगा।