एतास्ते अग्रे समिधस्त्वमिद्धः समिद्भव |
अयुरस्मासु धेह्य्म्रितत्व्माचर्याय |
(अथर्ववेद 19/64/4)

हे (अग्ने) यज्ञ की अग्नि (एताः) ये (ते) तेरे लिये (समिधः) समिधाएँ हैं | [भाव यह है कि हम अग्निहोत्र के लिये आम, पीपल, शीशम और कीकर की समिधाओं का विशेष तौर पर प्रयोग करें | यदि यह समिधाएँ उपलब्ध न हो तो मज़बूरी में और समिधाओं का प्रयोग करें |]

(त्वम्) हे अग्ने! तू (इन्दः) प्रज्वलित होकर (समित् भव) अच्छी तरह दीप्ति वाला अर्थात् प्रकाशवान हो | हे अग्ने! (आचार्याय) आचार्य की सेवा के लिए (अस्मासु) हममें (आयुः) दीर्घायु और (अमृतत्वम्) अमरता को (धेहि) धारण कर |

भाव यह है कि जो साधक नित्य अग्निहोत्र यज्ञादि शुभ कर्म करते हैं तथा आचार्य की तन, मन, धन, तथा प्राण से सेवा करके वैदिक ज्ञान प्राप्त करते हैं वो पूर्णायु का सुख भोग कर, देवमार्ग पर चल कर, अमृत को अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं |