ऊतय: का अर्थ आप सबको पता है कि ‘रक्षा’ है। आजकल ऐसे मन्त्रों की आहुति बहुत ज़रूरी है। ईश्वर पूरी दुनिया की रक्षा करें, भारत की भी। कोरोना से घबराने की ज़रूरत नहीं है। आप अग्निहोत्र करते रहें, ईश्वर रक्षा करेगा और भारतवर्ष पे भी कृपा है। मैं विश्व के कल्याण के लिया भी आहुति डलवाता रहता हूँ।

ओ३म् जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेद:। 

स न: पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ॥ (ऋग्वेद मंत्र १/९९/१) 

एक ऐसा मंत्र पहले भी आया है। जैसे मल्लाह, बड़े कठिन समुद्रों में संभाल कर के (बड़े-बड़े जहाज होते हैं इनको तूफान में भी) पार लगा देते हैं। ऐसे ही अगर ठीक तरह से उपासना किया हुआ परमेश्वर, दु:ख रूपी महा-समुद्र से हमें पार लगा देता है। 

मनुष्य के ऊपर ऐसा ही महासमुद्र दु:खों का है। जैसे दु:खों का समुद्र है और मनुष्य उसमें डूबे जा रहा है – कैसे?  एक बार जब यह मनुष्य चोला छूट जाता है, बुरे कर्म कर कर के, पाप कर-कर के, छूट गया। यह जो योनि भटक गई, जैसे कुत्ता बना,जैसे छिपकली बना, चाहे हाथी बना, चाहे शेर बना, कर्मानुसार, जैसी भी योनि में आया। छ: करोड़ तो मनुष्य ही हैं,और ” असंख्यधाः” भगवान ने कह दिया योनियां तो असंख्य है। असंख्य का मतलब आप जानते ही हो। तो इतनी योनियों में भटकने का मतलब है कि हम दुखों के सागर में डूबे हुए हैं। यह विचार की बात है अगर कोई विचार करें।अगर हम मनुष्य होकर विचार नहीं करेंगे, तो किसी और योनि में तो विचार चलता ही नहीं है । वहां तो 4 चीजें चलती हैं  – आहार, निद्रा, भय, मैथुन बस।

मान लिया इतने बड़े समुद्र में हम गिर गए हैं,और फिर हमें यह मनुष्य का शरीर मिला है। तो भगवान ये कह रहा है कि अगर ठीक तरह से इस योनि में आप श्रद्धानुसार भगवान की पूजा करते हो, सीधा ही कहा है, तो वह ईश्वर जो है वह उसको इस समुद्र से पार ले जाता है नहीं तो उसका तो कोई ठिकाना ही नहीं है। 

असंख्य योनियां है, और एक-एक योनि में कितने-कितने साल जीना पड़ता है। यह तो बस दु:खों का समुद्र है। जैसे यह बाहर समुद्र है इसकी कुछ थाह नहीं है। पानी ना जाने कितना गहरा है। कौन सा जहाज डूब गया था जैसे ‘टाइटेनिक'(Titanic)। ऐसे कई जहाज डूब गए, कोई पता नहीं चला। समुद्र का पानी इतना गहरा है। इसकी थाह बड़ी है। परंतु इसकी तो कोई थाह भी होगी लेकिन योनियों की तो कोई नहीं है। ये असंख्य बता दी हैं। गिने-चुने सात बड़े समुद्र हैं लेकिन वे योनियां तो असंख्य हैं। तो हमें यह सोचना है कि पार कौन लगाएगा।  पार लगाने वाला तो ईश्वर है और इसकी भक्ति अगर गुरू कृपा से ठीक तरह से की जाए। गुरू की कृपा तो हमेशा ही चाहिए।

ऋग्वेद दसवें मंडल में भी 135 सूक्त में भी नाव की भी बात हुई है। यहाँ समुद्र और जहाज की बात की हुई  है। जैसे विशाल समुद्र से मल्लाह जहाज या कश्ती को पार लगा देता है। अगर ठीक-ठीक भगवान की भक्ति की गई है, मतलब पाप-कर्म छोड़ने  हैं। ठीक- ठीक यानि सारे पाप छोड़ दिए, तो भगवान भी एकदम से मनुष्य को इस भवसागर से पार लगा देता है। विद्वानों के नाव में जो भी बैठ गया वह पार लग जाता है। किसी और की क्या सामर्थ हो सकती है कि भवसागर से पार लगा जाए। वह तो परमेश्वर की उपासना करने वाला ही मनुष्य जो है इस भवसागर से पार होता है और किसी की क्या सामर्थ है?

ओ३म् यस्यानाप्त: सूर्यस्येव यामो भरेभरे वृत्रहा शुष्मो अस्ति। 

वृषन्तम: सखिभि: स्वेभिरेवैर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ (ऋग्वेद मंत्र १/१००/२) 

(यस्य भरेभरे) धारण करने योग्य.. इस मंत्र में उपमालंकार है। यहाँ इस मंत्र  में भी भगवान यही कह रहे हैं कि मनुष्य को यह जानना चाहिए। क्या जानना चाहिए? कि मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि यदि सूर्यलोक तथा आप्त विद्वान् के गुण, और स्वभावों का पार दुःख से जानने योग्य है। 

सूर्यलोक कितना बड़ा है और आप्त विद्वान के गुण और स्वभाव को जानो। ईश्वर के गुण, कर्म ,स्वभाव और आप्त पुरुष यानी विद्वान तपस्वी के गुण, कर्म, स्वभाव को जानो। पर यह भगवान यहाँ यह समझा रहा है कि दु:ख से भी यह बड़ी कठिन है। गुरूजी गुरूजी तो कहा जा सकता है पर श्रद्धा ही काम आती है। इतनी जल्दी सूर्य का गुण, कर्म ,स्वभाव कैसे जान जाओगे? सूर्य के लिए भी कई जन्म लगेंगे। ऐसे ही बड़ी मुश्किल से ही एक जन्म में भी जाने जा सकते हैं और कई जन्मों में भी। लेकिन ईश्वर गुरु और सूर्य इनके गुण कर्म स्वभाव बड़े-बड़े बड़ी बड़ी कठिनाई से तपस्या से, इन्द्रिय-संयम से, ब्रह्मचर्य से, मृदु-भाषा आदि से जाने जाते हैं। 

संयम, नियम, ब्रह्मचर्य आदि यह सब चीजें बड़ी आसान है अगर जिज्ञासा आ जाए। फिर इसमें आनंद आता है। यह दुनिया का आनंद नहीं है, यह परम-आनंद है। ईश्वर तेरे में मद है, थोड़ा सा मद मुझे भी दे दे तो अलौकिक आनंद शुरू हो जाता है। (‘तेन नूनं मदे मदेः’ – सामवेद मंत्र ११६) 

संयम, नियम, ब्रह्मचर्य और वेद-वाणी सुनना और योगाभ्यास करना, और वेदों के उपदेशों को धारण करने की कोशिश करना – इसी से ही यह जाने जाते हैं। यहां भगवान ज्ञान दे रहे हैं कि यह कठिनाई से जाने जाते हैं।

यह नहीं की हम अपने गुरू को जानते हैं कि उनके गुण, कर्म और स्वभाव क्या हैं। नहीं जानते तभी तो पाप करते हो और गुरू के साथ गुनाह कर देते हो। जानते हो तो कैसे पाप करोगे? बड़ी मुश्किल से कोई जानता है, नहीं तो बस श्रद्धा काम आती है। आगे चलकर श्रद्धा से ही बड़े कठोर नियम, साधना इत्यादि के द्वारा ये जाने जाते हैं। 

भगवान यह समझा रहे हैं यह दु:ख से जानने योग्य है। आप अगर परमेश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव जानना चाहते हो, तो वह और भी मुश्किल है। सूर्य और गुरू के ही जानने में ही बहुत कठिनाई है। परमेश्वर के गुण, कर्म और,स्वभाव तो और भी कठिन हैं। इनका तो क्या कहना? अगर नहीं जानेंगे तो रक्षा नहीं होगी। नहीं जानेंगे तो पार नहीं उतरेंगे। इसलिए परमेश्वर और गुरू की सेवा में ही जीव रहे ऐसा ये उपदेश है। 

परमेश्वर और गुरू की सेवा में ही रहें। उनकी मित्रता में ही रहें। उनके खिलाफ कोई कदम सोच भी ना लें, यह ईश्वर का संदेश है। हमारी रक्षा करो प्रभु! यह रक्षा मित्रता निभाने में, सेवा करने में और हर कठिनाई को बर्दाश्त करके, आनंद उपजाने के लिए ही यह शरीर मिला है। कोई कठिनाई दिखती है नहीं। ईश्वर भी कह रहा है कि बड़ा कठिन है, लेकिन कई जगह ईश्वर कह देता है कि अगर तुम ठीक तरह से चल रहे हो, तो यह कठिन है भी नहीं । तुम्हें उपदेश दिया भगवान ने कि कठिन उनके लिए है जो आलसी हैं, दलिद्री हैं, मेहनत नहीं कर सकते, उनसे तो ईश्वर बहुत दूर है, उनके लिए तो बहुत मुश्किल है। 

जो परिश्रम करते हैं, जो सेवक हैं, जो जिज्ञासा रखते हैं, जो कठिन मार्ग पर चल रहे हैं, उनके तो वो अंदर भी है, वो एकदम अंदर ही प्रकट हो जाता है। उनके लिए वो सुलभ हैं। (‘तद् दू॒रे तद्व॑न्ति॒के’ – यजुर्वेद मंत्र ४०/५)