ओ३म् आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन्। 

अस्मे रयिं बहुलं संतरुत्रं सुवाचं भागं यशसं कृधी नः॥ (ऋग्वेद मंत्र ३/१/१९)

भावार्थ: यदि मनुष्यः सुमित्राणि प्राप्नुयात्तर्हि तं महती श्रीः कथं न प्राप्नुयात्। 

इस मंत्र में भगवान कह रहा है कि अगर मनुष्य अच्छे (सुमित्राणि) गुणवान मित्रों को, जो वेद के ज्ञाता हैं  ऐसे मित्रों को, यानि विद्वानों को प्राप्त होता है (तं महती श्रीः) तब उनके लिए धन,धान्य, बड़ी लक्ष्मी आदि क्यों नहीं मिलेंगे?  यानी १००% मिलेंगे। अगर उनका झुकाव, मिलन, उठना-बैठना विद्वान के  संग है,  भगवान के साथ तो फिर है ही। सुख, धन और ब्रह्म क्यों नहीं मिलेगा? देवयान मार्ग मिलेगा ही मिलेगा।

तो हमें मित्रता सोच समझकर करनी है।  परमेश्वर और ऋषि मुनि ही सच्चे मित्र हैं। बाकी लोग कभी भी धोखा दे सकते हैं। मनुष्याः अनृतं वदन्ति – मनुष्य झूठ बोलते हैं। मनुष्य की इंद्रियाँ संयम में नहीं होती हैं। इसलिए मित्रता हमेशा गुरु व परमेश्वर के साथ करो। अन्य शिष्यों से गुरु भाई बहन का रिश्ता बना के रखो। इन्द्रियाँ संयम में रखो। तब पूरी सृष्टि का विजेता बन सकता है।  

ओ३म् एता ते अग्ने जनिमा सनानि प्र पूर्व्याय नूतनानि वोचम्। 

महान्ति वृष्णे सवना कृतेमा जन्मञ्जन्मन् निहितो जातवेदाः॥ (ऋग्वेद मंत्र ३/१/२०)

भावार्थ: हे मनुष्या यानि कर्माणि जीवैरनुष्ठेयानि क्रियन्ते करिष्यन्ते च तानि सर्वाणि सुखदुःखमिश्रफलानि भोक्तव्यानि भवन्ति। 

(यानि कर्माणि जीवैरनुष्ठेयानि) जो कर्म जीवन में करने योग्य हैं।  (क्रियन्ते करिष्यन्ते च तानि सर्वाणि सुखदुःखमिश्रफलानि भोक्तव्यानि भवन्ति) उनसे किये जाते और किये जायेंगे, वे सब सुख-दुःख मिश्रित फल भोगनेवाले होते हैं।

जो कर्म उनसे किए जाते हैं या किए जाएंगे उनका फल सुख  दु:ख के रूप में भोगना निश्चित है। सुख आएगा कभी दु:ख आएगा। 

ओ३म् जन्मन्जन्मन् निहितो जातवेदा विश्वामित्रेभिरिध्यते अजस्रः। 

तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम॥ (ऋग्वेद मंत्र ३/१/२१)

भावार्थ: सर्वैर्मनुष्यैः प्रसिद्धे जगति सुखदुःखादीनि न्यूनाधिकानि दृष्ट्वा प्रागर्जितकर्मफलमनुमेयम्। यदि परमेश्वरः कर्मफलप्रदाता न भवेत् तर्हीयं व्यवस्थापि न सङ्गच्छेत् तदर्थं सर्वैः श्रेष्ठां प्रतिज्ञामुत्पाद्य द्वेषादीनि विहाय सर्वैः सह सत्यभावेन वर्तितव्यम्।  

यह ईश्वरीय ज्ञान नोट करना चाहिए।  यह  ऋग्वेद का तीसरा मंडल,  पहला सूक्त  और २१ वां मंत्र है।

सब मनुष्यों को प्रसिद्ध जगत् में सुख-दुःखादि न्यून अधिक फलों को देखकर – कभी छोटा दुःख आया  और कभी पहाड़ टूट गया और कभी छोटा सुख आया, कभी ज्यादा आया।  इन सब को देख कर, पहले जन्म में सञ्चित कर्म फल का अनुमान करना चाहिये। इससे पहले जो जन्म हुआ था उसमें संचित,  क्रियामान व प्रारब्ध यह सब जोड़कर संचित कर्म बनते हैं। तो संचित कर्मों को देखना है, अनुमान करना है किइससे परमेश्वर हमें फल देने वाला है।  यानी जो हमारा जन्म होना है, मान लीजिए आज किसी का स्वर्गवास हो गया तो जीवात्मा का जन्म तय हो चुका है  कि किस शरीर में होगा। निकलते निकलते प्रारब्ध भी बन चुका है। कर्म फल भोगने के लिए यह जीवात्मा इस शरीर से बाहर निकलती है।  यह जीव विशेष वायु के बंधन में रहता है।  यह सूत्रात्मा वायु होती है।  फिर ऊपर जाती है, फिर घूम कर नीचे आ जाती है।  फिर नीचे आकर किसी ना किसी फल से,  पानी से किसी ना किसी से मिलकर male मेंबर के पेट में जाती है फिर माता-पिता के द्वारा यह जन्म लेती है।  उसके बाद प्रारब्ध भोगना शुरू करती है।  बाकी जो शेष कर्म रहेंगे वह बाद में भोगेगी।  संचित कर्म से ही ईश्वर प्रारब्ध बनाता है। 

तो इसलिए हम अपनी बुद्धि को शुद्ध करके, छल छोड़ कर, सत्य भाव से एक दूसरे से व्यवहार करें।  घर में भी और बाहर भी झूठ व चोरी सब छोड़ दो। नहीं तो यह भगवान थोड़ा दु:ख और बड़ा दुख इससे अंदाजा लगाना है कि प्रारब्ध का फल मिलकर ही रहेगा।  मित्रता जो है वह ऋषि और ईश्वर से करें फिर दुखों का नाश शुरू होता है नहीं तो जन्म मृत्यु का चक्र चलता रहता है।  जीवात्मा बहुत दु:ख पाती है।