अनुष्ठान की महान पुण्यवान आहुतियों को डालो| यह ऋग्वेद है इसमें सारे पदार्थों का ज्ञान है और  साथ में  ईश्वर का भी ज्ञान है|

अर्थ भी जरूरी है| आपको यह याद रहे| यह साथ जाता है क्योंकि यह अमृतवान है| 

ओ३म् इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥ (ऋग्वेद १/१३/९)

ईळा वह वाणी जिससे स्तुति होती है| सरस्वती – जो ज्ञान विज्ञान का दाता ईश्वर है| वेद में कोई मंत्र ऐसा आएगा जिसमे स्तुति है, कोई मंत्र ऐसा आएगा जिसमें विज्ञान है| जैसे हिरण्यगर्भः – इसे ईळा वाणी बोलेंगे जिसमें सिर्फ स्तुति है| 

माही वाणी है – निति के बारे में| इन वाणियों का भी ज्ञान होना चाहिए| विज्ञान ने हर मैटर (पदार्थ) का ज्ञान दिया है| यह वाणी हिंसा रहित है| तो हिंसा से बचना भी चाहिए| (र्मयोभुव) यह सुख का देने वाली है| कोई भी विषय सुनोगें वो ईश्वर से सम्बद्ध होगा| ये दिव्य गुणों का प्रकाश करने वाली है| सब वाणियों में ईश्वर बैठा है| जो कोई वेदवाणी आप सुन रहे हो वो सुखों को देने वाली है| छुपे हुए गुण जो इसमें है उनको यह प्रकाश में लाती है| यानि इन मन्त्रों को जब आप सुनते हो तो ज्ञान मिलता है| 

हमें बड़ों का आदर मान-सम्मान करना चाहिए| यह जो ईळा है वो स्तुति की वाणी है| यह जितना भी आप सुनोगे उसमें प्रेरणा देती है| वेदों में अलग अलग जो वाणी है, ये ईळा वाणी का आप पठन-पाठन करते हो, यह प्रेरणा देती है और इसमें सहायता देती है|  बार-बार आप सुनोगे तो अपने आप प्रेरणा आएगी कि आप गुरू के पास जाकर वेद सुनो|

सरस्वती जो है वह उपदेश रूप ज्ञान का प्रकाश देती है| मही वो है जो प्रशंसा करने योग्य है सब प्रकार से (ईश्वर), उसकी प्रशंसा करती हैं| इन तीन वाणिओं का कोई खंडन नहीं कर सकता| 

संक्षेप में:

  1. ईळा – इस वाणी से ईश्वर की स्तुति होती है।
  2. सरस्वती – इस वाणी से उपदेश दिया जाता है।
  3. मही – इस वाणी से प्रशंसा होती है।

ये तीनों वाणी में ईश्वर है। इन तीनों वाणी का कोई खण्डन नहीं कर सकता। इनसे अविद्या का नाश होता है।अस्त्रिध– वेद वाणी हिंसा रहित है। मर्योभुव: – सुख देती है। देवी– यह तीनो वाणी दिव्य गुणों का प्रकाश करती है। इसे सुनने से ज्ञान मिलता है।

वेदों में जो अर्थ हैं जब समझ में आतें हैं, जैसे स्तुति है, जैसे की ईश्वर ज्योति स्वरूप है, वो प्रशंसा के योग्य है – अब इसका कोई भी दुनिया में खण्डन नहीं कर सकता है| अगर कोई खण्डन करता है तो करता रहे पर ईश्वर के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है| किसी भी वाणी को खण्डन नहीं कर सकता है| जो सही माने में सुनेगा समझेगा वो भटकेगा नहीं, एकदम दृढ़ हो जायेगा| इन्ही तीन वाणी से अविद्या का नाश होता है| जितने भी दुनिया में थोथे कर्मकाण्ड हैं, भूत-प्रेत की पूजा है, और कितने पूजा  पाठ अपने आप बनाएँ हैं, इनको वेद खण्डन कर देता है| पर जीव आलस्य में आकर इस विद्या को भूले बैठा है और काम क्रोध आदि में चला गया| भौतिकवाद में और पैसे में फंसा है| ईश्वर को भूलने के कारण वो अविद्याग्रस्त हो गया है| 

ओ३म् इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये। अस्माकमस्तु केवलः॥ (ऋग्वेद १/१३/१०)

यह जो विश्व है यह परमेश्वर का रूप है| जैसे कोई लोहे की गेंद को अग्नि में डाल दे| उसमें फिर अग्नि प्रकट होती है| पहले गेंद में अग्नि नहीं दिख रही थी अभी लाल-लाल हो गई| अग्नि लपटों वाली है पर गोल नज़र आ रही है| ऐसे ही पृथिवी, आकाश, चंद्र, सूर्य, नक्षत्र, पूरा ब्रह्माण्ड है, जो दिख रहा है, इसमें ईश्वर सर्वव्यापक है| वह ईश्वर कण-कण में व्यापक है| योगिओं के पास देखने की दिव्य शक्ति है| जब वो ईश्वर का दर्शन करते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि सब जगह ईश्वर है| जैसे पहले गेंद लोहे की दिखाई दे रही थी अब अग्नि हो गई है, वैसे ही योगीओं को सब जगह ईश्वर नज़र आने लगता है| 

ये सूरज, चाँद सितारे इनमें कण-कण में ईश्वर है और सारे संसार में ईश्वर है, और सारा संसार ईश्वर में है| 

अग्रियं – सब वस्तुओं में आगे है मतलब सब रचना से पहले वो थे| ईश्वर सबको उल्लंघन कर गया – यानि रचना से परे भी वो है| संसार जैसी रचना और कोई नहीं कर सकता है| वो सबसे आगे है| उस समान कोई नहीं है| 

त्वष्टारं पूजा करने वाले के दु:खों का नाश करने वाला है| 

जो ईश्वर सर्वव्यापक है अग्रियं है, त्वष्टारं है उसको हम घरों में साधना से प्रकट करें| अपने घरों का मतलब है अपने हृदय में| इस ईश्वर की वेदों द्वारा साधना करके – हे प्रभु! मैं तुम्हें आह्वान करता हूँ कि मेरे हृदय में आ जाओ| 

अस्माकमस्तु केवलः – स्तुति करने योग्य एक ही है| इससे अलग ईश्वर कोई और नहीं है| दिल करता है कि यह ईळा वाणी चलती रहे|

ओ३म् सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधामयासिषम्॥ (ऋग्वेद १/१८/६)

इसमें परमेश्वर के गुणों का वर्णन है| हे प्रभु! हम जो (इन्द्रस्य) अधर्म से दूर रहकर जो चाहते थे वो हम सुख प्राप्त करें| काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, भौतिकवाद आदि को त्यागना पड़ता है| चापलूसी से दूर रहे| धन तो चाहिए ही चाहिए| धन दान के लिए भी होता है| ईश्वर ने कहा सामर्थ्य के अनुसार दान कर सकते हो| परिवार को सुख दें, सबका ध्यान रखें पर इसलिए पाप कर्म से दूर रहो|  वो परमेश्वर के सच्चे सेवक हैं| 

इस मंत्र में पाप से दूर रहने की शिक्षा दे रहे हैं| 

हे मनुष्यों! सुनो! आप मुझ से ऐसी प्रार्थना करो कि मैं इन्द्र की, जो सब प्राणियों को सुख देते  है, उन ईश्वर की| पाप पुण्य कर्म की यथायोग्य फल देने वाले हैं, वो परमेश्वर जो प्राणी के सबसे प्रिय हैं, जो अद्भुत हैं, जिनमें आश्चर्य युक्त गुण हैं, जिनको विद्वान धारण करते हैं, उन परमवेश्वर को मैं उपासना 

और कोई को न पूजूँ|

(मेधामयासिषम्) उत्तम मेधा बुद्धि को प्राप्त करूँ|  ईश्वर की इस बात को याद रखो कि मैं विद्वान के बिना नहीं मिलता हूँ| जो वेदों में वर्णित ईश्वर की उपासना नहीं करते वो ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते| 

उस ईश्वर की पूजा करें जो एक है, अद्भुत है,  और वो परमेश्वर जो है सबको पसंद करने वाला है, अनंत गुण वाला है| शिष्य गुरू से याचना करते रहें कि हमें वेद सुनाओ| 

उपनिषद में जैसे है कि ज्ञान का जिज्ञासु शिष्य गुरू के पास आकर दीक्षा की कामना करता हैं फिर उसको वेद का ज्ञान मिलता है| ऐसे ईश्वर को कभी  न छोड़ो| वो जड़ और चेतन दोनों में प्रकट है| जिसका मन गुरू में है उसको पूरा पुण्य प्राप्त होता है| आप भी विद्वानों में थोड़ा-थोड़ा शामिल होते जा रहे हो|