स्वामी राम स्वरूप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल) (www.vedmandir.com)

ओ३म् किमाग आस वरुण ज्येष्ठं यत्स्तोतारं जिघांससि सखायम् ।

प्र तन्मे वोचो दूळभ स्वधावोऽव त्वानेना नमसा तुर इयाम् ॥ (ऋग्वेद ७/८६/४)

(वरुण) हे परमात्मा (ज्येष्ठं) बड़े (आगः) पाप (किं) क्या (आस) हैं। (यत्) जिसके कारण (सखायं) सखा रूप आप (स्तोतारं) उपासकों को (जिघांससि) हनन् करना चाहते हो। [यहां साधक ध्यान दें कि ईश्वर पापियों का सखा नहीं होता, पापियों को वो दण्ड देता है और सज्जनों की रक्षा करता है। वेद में मंत्र आता है “यो जागार तमृच: कामयंते” अर्थात् जो प्रात: काल जागता है, जो वेद मंत्रों का अध्ययन करता है, साधना करता है, वेद मंत्र भी उसकी कामना करता हैं। (यः जागार) जो प्रातः काल जागता है (तं अयं सोमः आह) उसको ईश्वर कहता है “अहम्”= मैं “तव” = तेरी “सख्ये” = मैत्री में “अस्मि” = हूँ। अतः आलसी को ईश्वर की या सुख की प्राप्ति नहीं होती।] (तत्) उसको (प्र में वोचः) विशेष रूप से (मे) मेरे प्रति कहें (दूळभ) हे परमेश्वर! (त्वा) आप (स्वधावः) आनंद स्वरूप हैं, अतः (अनेनाः) ऐसे पापों से (अव) रक्षा करें जिससे मैं (नमसा) नम्रतापूर्वक (तुरः) शीघ्र ही (इयां) आपको प्राप्त होऊँ।

भावार्थ – परमेश्वर किए हुए पापों को तब तक माफ नहीं करता जब तक साधक अपने पापों को समझकर वैदिक साधना द्वारा स्वयं नष्ट ना करें। अतः साधक सभी पाप कर्मों को छोड़ने का प्रयास करें।