स्वामी राम स्वरूप जी, योगाचार्य, वेद मंदिर (योल) (www.vedmandir.com)

ओ३म् न स स्वो दक्षो वरुण ध्रुति: सा सुरा मन्युर्विभीदको अचित्तिः। अस्ति ज्यायान्कनीयस उपारे स्वप्नश्चनेदनृतस्य प्रयोता ॥ (ऋग्वेद  ७/८६/६)

(वरुण) हे परमेश्वर (स्वः)  अपने स्वभाव से जो (दक्षः) कर्म किया जाता है, (सः) वह उस पाप वृत्ति के कारण (न) नहीं होता,  अपितु (ध्रुतिः) पाप कर्मों में जो मन संलग्न है (सा) वह (सुरा) मदिरा के समान होने के कारण (मन्युः) क्रोध और पाप वृत्ति का कारण है [भाव यह है कि अपने स्वभाव के वशीभूत किया हुआ कर्म ही पाप कर्म से युक्त नहीं करता किंतु पाप कर्मों में जो जीव की दृढ़ प्रवृत्ति है वह मदिरा के समान है अर्थात् जैसे शराबी को शराब की लत लग जाए तो वह शराब पीना नहीं छोड़ता, अफ़ीमची को अफ़ीम की लतलग जाए तो वह अफ़ीम खाना नहीं छोड़ता इसी प्रकार जब मन पाप वृत्ति में फंस जाता है तब पाप वृत्ति के वशीभूत होकर वह क्रोध आदि करता है और क्रोध के वशीभूत होकर पाप कर्म करता है।]

(विभीदकः) जुआ आदि खेलना भी पाप कर्म में संलग्न होने का कारण है (अचित्तिः) अज्ञान अर्थात्  वैदिक ज्ञान न होने के कारण भी  पाप कर्म किया जाता (अस्ति) है, (ज्यायान्, कनीयसः, उपारे)  जीव के हृदय में विराजमान परमेश्वर भी जीव को शुभ कर्मों का फल पुण्य और मंद कर्मों का फल पाप देता है (स्वप्नः, चन, इत्)  स्वप्न में किया हुआ कर्म (अनृतस्य, प्रयोता) झूठ की ओर  ले जाने वाला कर्म है अर्थात्  स्वप्न झूठे होते हैं। इस कारण वैदिक मार्ग पर  चल कर ही जीव सब पापों से मुक्त होकर मोक्ष पद प्राप्त करता है। यह हमें नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य का और वेदों का परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, काम, क्रोध, मद, लोभ आदि  पाप  वृत्तियों  में फँसना नहीं है।

वेद एवं योग विद्या के ज्ञाता गुरु का आश्रय लेकर हम वेदमार्ग पर चलकर जीवन सफल करें।